इक्कीसवीं सदी की दलित लेखिकाओं का कथा साहित्य यथार्थ और विमर्श

500.00

“इक्कीसवीं सदी की दलित लेखिकाओं का कथा साहित्य यथार्थ और विमर्श” एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है जो डॉ. अजय कुमार सिंह द्वारा लिखी गई है। यह पुस्तक दलित स्त्रियों के जीवन को उजागर करने, समीक्षा करने, और विमर्श करने का एक प्रयास है। डॉ. सिंह की आलोचनात्मक कृति के माध्यम से, इस पुस्तक ने समाज में दलित स्त्रियों के प्रति अनैतिकता और असमानता की दिशा में चुनौतीपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
पुस्तक में डॉ. सिंह द्वारा प्रस्तुत की गई महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ दलित स्त्रियों के शोषण के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करती हैं। उनके विवेचनात्मक दृष्टिकोण से यह पुस्तक बताती है कि जेंडर, जाति और पितृसत्ता के नाम पर दलित स्त्रियों को कैसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया है। इसके साथ ही, सवर्ण पुरुष और स्त्रियाँ कैसे इस अनैतिक तंत्र में शामिल होती हैं, इसका भी महत्त्वपूर्ण विवेचन किया गया है।
पुस्तक में लेखक ने दलित लेखिकाओं के कथा साहित्य का विश्लेषण करते हुए यह दिखाया है कि कैसे इन लेखिकाओं ने अपने साहित्य के माध्यम से दलित स्त्रियों के जीवन के यथार्थ और विमर्श को प्रस्तुत किया है। उन्होंने दलित स्त्रियों के शोषण और दमन के विभिन्न रूपों को उजागर किया और दलित स्त्रियों के संघर्ष और प्रतिरोध को भी दिखाया।
पुस्तक एक महत्त्वपूर्ण और मौलिक कृति है। यह कृति दलित स्त्रियों के जीवन के यथार्थ और विमर्श को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
नन्दलाल साव
प्रकाशक
अंजनी प्रकाशन

34 in stock

  • Author: Dr. ajay kumar singh
  • Edition: First
  • Language: Hindi
  • Publisher: Anjani Prakashan
Add to CompareAdded
  Ask a Question
SKU: 978-93-94667-57-0 Category:

किसी भी समाज का ठीक-ठीक चित्रण करने के लिए साहित्य का सहारा लिया जाता रहा है। समाज के सभी आयामों के प्रतिबिम्ब को साहित्य में सार्थकता के साथ रूपायित भी करना इसका अभिप्राय रहा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य में लगातार परिवर्तन देखने को मिला है। एक ओर परम्परा को ध्यान में रखते हुए आधुनिक संदर्भों में हिंदी साहित्य ने अपनी विधाओं में भी बढ़ोत्तरी की है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि आंदोलनों ने साहित्य के विकास पथ को अग्रगति प्रदान किया है। सामाजिक, सांस्कृतिक आंदोलनों ने दलित साहित्य तथा दलित आंदोलन को मुक्ति की संघर्ष-यात्रा के रूप में परिणत किया है जिसका परिदृश्य मूलत: समग्र भारतीयता को लिए हुए है। सामान्यत: इस परिदृश्य को जो पैनापन और ऊर्जा प्राप्त हुई है उसके मूल में दलित लेखिकाओं का साहित्य रहा है। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में इन लेखिकाओं ने अपनी पीड़ा, संघर्ष को मुखरता देने का प्रयास करती हैं। आरम्भ में इन्हें भी अपने समाज के लेखकों की अवहेलना तथा आलोचना सहनी पड़ती है, किंतु वे निडरता तथा बेबाकीपन से अपने जीवन के कटु अनुभवों को साहित्य के माध्यम से उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं किया है।
दलित लेखिकाओं ने अपने जीवन के दुखों, कष्टों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस माध्यम का अनुसरण किया वह मूलत: साहित्य ही रहा है। इनका आग्रह भी इस तथ्य पर रहा है कि “मैंने जीवन को जिस रूप में जिया, भोगा और आत्मसात् किया है, वही मैंने साहित्य में व्यक्त किया है।” दलित लेखिकाओं ने अपने अनुभव, अस्मिता की आकांक्षा को ‘व्यष्टि’ की जगह ‘समष्टि’ में व्यक्त करना ही अधिक समीचीन माना है। सामान्यत: दलित लेखिकाओं में सामाजिक जिम्मेदारी की गहराई से परख देखी गई है। जो उनके लेखन में भी अभिव्यक्त हुआ है। समाज का स्त्री-पुरुष दोनों के प्रति रखे जाने वाले अलग-अलग प्रश्न और नीति, नियम आदि सभी ओर दृष्टि डाली गई है। निरंतर बदलते सामाजिक स्थितियों को दलित लेखिकाओं के प्रतिकूल बनाने और उनके कष्टों को और भी गंभीर कर पीड़ादायक बनाने में मूलत: आर्थिक रूप से कमजोर तथा रोजगार विहिनता जैसी परिस्थितियाँ ही बड़ी भूमिका निभाती रही है। स्त्री और पुरुष सृष्टि के दो अभिन्न अंग रहे हैं। सृजन और संचालन में दोनों की भूमिका बराबर रही है लेकिन पूरी दुनिया में स्त्री, समाज के ढाँचे का सबसे कमज़ोर और उपेक्षित भाग रही है। तेज़ी से बदलते समाजों में यहाँ तक कि इस इक्कीसवीं सदी के प्रौद्योगिक युग में भी उसका स्थान दोयम दर्जे का है। स्त्री और दलित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में दलित लेखिकाओं के साहित्य का अध्ययन दोहरे स्तर पर औचित्यपूर्ण हो उठता है।
दलित साहित्य में दलित स्त्री के द्वारा रचित साहित्य में दलित स्त्री अपना ‘स्पेस’ (स्थान) बनाने में कितनी सफल हुई है, यह देखा जाना भी जरूरी होगा। चूँकि दलित लेखकों और आलोचकों ने मुख्यत: उसी को ‘दलित’ माना है जो ‘निम्नजाति’ का है। इसलिए दलित विमर्श के साथ जाति का प्रश्न अविभाज्य है। इस क्रम में लिंगगत आधार पर शोषित होने के साथ-साथ दलित स्त्री जाति के आधार पर भी शोषिता है। वह दोहरे शोषण का शिकार है। समाज में उसे सबसे नीचले पायदान पर रखा गया है। दलित स्त्री को एक साथ जाति और स्त्री होने के दोहरे कारणों से शोषण और उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है।
सामाजिक संरचना की निर्मिति में जो वर्ण-व्यवस्था बनाई गई उसमें ‘जाति’ केवल श्रेष्ठता का परिचय देने मात्र के लिए नहीं बनाई गई थी। अपितु ‘जाति निर्मिति’ की आधार भूमि केवल आर्थिक स्थिति ही थी जिसके बरक्स आर्थिक क्षमता ही सर्वोपरि रही है। प्राचीन मान्यता के अंतर्गत समाज में जो उत्कृष्ट जाति होगी वही शासक वर्ग कहलाएगा। बाकी की मध्य जातियाँ पशुपालन के साथ-साथ कृषि उत्पादन का कार्य करेंगी। तथा अंतिम निचले पायदान की जातियों को केवल अर्थहीन होने के कारण मेहनत, मजदूरी करते हुए साफ सफाई और कचरा उठाने का कार्य करना पड़ा। मूलत: यही मुख्य कारण रहा है जिसमें निचली जातियों को हिन्दू धर्म शास्त्रों की दुहाई देकर संपत्ति और भूमि खरीदने से दूर रखा गया ताकि उन्हें आर्थिक रूप से पिछड़ा रखते हुए विवशतापूर्ण ढ़ंग से अधिकारों से वंचित कर जातीय पेशे से जोड़ा जा सके।
दलित स्त्री के शोषण का मूल कारण उसका अशिक्षित होना है। वह शारीरिक श्रम द्वारा अत्यल्प ही सही किंतु अर्थोपार्जन करती रही है फिर भी शिक्षा के अभाव में उसकी कोई संगठित ध्वनि नहीं बन पाई है। निर्धनता और अशिक्षा ही है जिसके कारण दलित स्त्री पग-पग पर शोषित और प्रताड़ित होती रही है। वह इतनी असहाय प्राय: है कि अपनी आवाज़ भी नहीं उठा सकती। वर्ण व्यवस्था ने दलित समुदाय को जहाँ ला पटका है, दलित समुदाय ने अपनी स्त्रियों को उससे भी निम्न स्थिति में धकेल फेंकने का प्रयास किया है। जिससे मुक्त होकर स्वयं को समाज में स्थापित करने के लिए दलित लेखिकाओं ने स्वयं अपनी लेखनी के माध्यम से अपनी पीड़ा, यातना तथा दोहरे शोषण को साहित्यिक आंदोलन के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
दलित लेखिकाओं के जीवन और सामाजिक परंपरा को समझने का प्रयास है। दलित जीवन और समाज किसी भी तरह के शोषण तथा विसंगतियों से अछूता नहीं रहा है। इन्हीं कारणों से दलित साहित्य वर्तमान समय में अधिक प्रासंगिक बन जाता है। इस अध्ययन में दलित लेखिकाओं के साहित्य की अंतर्वस्तु एवं स्वरूप को समग्रता में विवेचित करने की चेष्टा की गई है। वर्तमान समय में हिंदी साहित्य में दलित लेखिकाओं ने अनेक विधाओं में साहित्य-सृजन आरंभ किया है, भले ही वह सृजन पूर्ण रूप से सशक्त न हुआ हो फिर भी प्रयास जारी है।
दलित लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के द्वारा समाज के उन पक्षों को भी उजागर करने का प्रयास किया है जिस पर अभी तक किसी की दृष्टि नहीं गई थी। दलित लेखिकाओं ने अपने शोषण को अपने सामाजिक – सांस्कृतिक जीवन – उत्सव, पर्व – त्यौहार, अंधविश्वास, रुढ़ि और परंपरा आदि से अपने अभिन्न संबंध को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। यह कहा जा सकता है कि वर्तमान दलित स्त्री – लेखन की सार्थकता और सफलता तभी सिद्ध हो पाएगी जब वह ‘पुरुषवादी’ मानसिकता से संघर्ष करते हुए स्वयं की दृष्टि से साहित्य की रचना, सैद्धांतिकी को सामने रखें। साथ ही साथ अपना इतिहास निर्मित करने के पश्चात् इसी निर्मिति के द्वारा स्त्री-विमर्शकार अपनी माटी को मज़बूत करते हुए अपनी गहरी और विस्तृत देशी जड़ों को सबके सामने प्रकट करने का प्रयास करें।
दलित लेखिकाओं द्वारा रचित कहानियों और उपन्यासों में उनका कष्ट व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर विस्तृत रूप में सामने आया है। दलित लेखिकाओं के कथा-साहित्य पर एक विहंगम दृष्टिपात से ही पता चल जाता है कि इसमें उनके नीजि विडम्बनाओं की अभिव्यक्ति प्रखर रूप में हुई है। भाषागत विशेषताओं के अन्तर्गत दलित लेखिकाओं की भाषा के अनूठे प्रयोग के साथ-साथ बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, व्यंग्य, स्थान और पात्रानुकूल संबंधी विशेषताओं के सोदाहरण निरूपण देखने को मिलते हैं। साथ ही शैलीगत विशेषताओं में वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक और मनोविश्लेषणात्मक आदि शिल्पगत प्रयोगों के विश्लेषण का समुचित प्रयास भी हुआ है। कथा – साहित्य में दलित लेखिकाओं की रचनाओं से उपलब्ध जीवन का यथार्थ और सैद्धांतिक विमर्श के संतुलन और असंतुलन को समेटने का प्रयास है। दलित लेखिकाओं का साहित्य यह दिखाता है कि हाशिए के अंतिम छोर पर खड़ी दलित स्त्री निराश नहीं है। दलित लेखिकाओं के साहित्य की जिजीविषा दलित स्त्री की जिजीविषा है जो उसके और उज्ज्वल भविष्य की आशा बँधाता है।
प्रस्तुत पुस्तक को पाँच अध्यायों में बाँटा गया है जिसमें हिन्दी साहित्य में दलित लेखिकाओं की व्यथा-कथा को उनकी रचनाओं द्वारा जानकर उस शोषण नीति की भयावहता से सामाजिकों को आत्मसात् करवाना उद्देश्य मात्र रहा है।
इस शोध प्रबंध का प्रथम अध्याय “दलित लेखन : यथार्थ और विमर्श” के अंतर्गत दलित लेखिकाओं द्वारा लिखे गए साहित्य का यथार्थ परक विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए दलित और स्त्री दोनों विमर्शों पर सैद्धांतिक चिंतन प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय अध्याय में “दलित लेखिकाओं का व्यक्तित्व और कृतित्व ” के द्वारा दलित लेखिकाओं के व्यक्तिगत जीवन वृतांत के साथ उनके द्वारा रचे गए साहित्य पर विचार किया गया है। तृतीय अध्याय “दलित लेखिकाओं की कहानियों में चित्रित दलित स्त्री का जीवन संघर्ष” के अंतर्गत कहानियों के तत्व तथा कथावस्तु का स्वरूप पर सैद्धांतिक विचार करते हुए विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से भविष्योन्मुख साहित्यिक विमर्शों की दशा एवं दिशा पर विचार किया गया है। चतुर्थ अध्याय “दलित लेखिकाओं के उपन्यास : सामाजिक सरोकार और दलित स्त्री” के अंतर्गत उपन्याओं में निहित दलित स्त्री संघर्ष के सजीव चित्रण को परत दर परत खोलने का प्रयास हुआ है। पंचम अध्याय “दलित लेखिकाओं की भाषा और शिल्प” के अंतर्गत भाषागत एवं शैलीगत विशेषताओं का अलग-अलग विवेचन करने का प्रयास हुआ है।
इस शोध-कार्य का पूर्ण होना और पुस्तक रूप में आने के लिए जिस मार्गदर्शन की आवश्यकता थी वह मुझे मेरी गुरु प्रोफेसर डॉ. रूपा गुप्ता से उदार रूप में प्राप्त हुई है। उनके प्रति कैसा भी कृतज्ञता ज्ञापन अधूरा ही रहेगा। पत्नी अनुराधा और पुत्री अभिज्ञा ने इस असाध्य से प्रतीत होते कार्य में मेरे शक्ति सम्बल और स्नेह की शक्ति की अगली कड़ी के रूप में हमेशा से मेरे साथ खड़ी रही हैं। इन सभी के बिना यह कार्य पूरा हो पाना असम्भव ही था।
अपने सभी प्रियजनों एवं मित्रों की शुभाकांक्षाओं के प्रति हृदय से आभारी हूँ।

डॉ. अजय कुमार सिंह

Weight 250 g
Dimensions 24 × 14 × 3 cm

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “इक्कीसवीं सदी की दलित लेखिकाओं का कथा साहित्य यथार्थ और विमर्श”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No more offers for this product!

General Inquiries

There are no inquiries yet.