केन्या
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माला वर्मा हिन्दी की बेहतरीन लेखिका हैं। मैं उनको तब से जानता हूँ जब उनकी किताब ‘बसेसर की लाठी’ मार्केट में धूम मचा रही थी। जिसका लोकार्पण उन दिनों के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर जी के हाथों कोलकाता स्थित महाजाति सदन में सम्पन्न हुआ था। तब यह किताब सुर्खियों में आ गई थी। लेखिका के लेखकीय जीवन का यह पहला प्रयास था और बेहद कामयाब रहा।
हिन्दी रचनाकार कविता कहानी को साहित्यकर्म मानता है जबकि पश्चिम बंगाल, जहां मैं रहता हूँ हर लेखक अपनी रचनाओं के साथ-साथ दूसरे साहित्य पर ध्यान देता है, बांग्ला के सभी बड़े रचनाकार बच्चों के लिए एवं अपने, महापुरुषों पर बराबर लिखने की कोशिश करते है, मैं यहाँ कुछ उदाहरण दूँ, बांग्ला लेखक सुनील गंगोपाध्याय ने ‘लालन फकीर’ (अविभाजित बंगाल के कबीर) की आत्मकथा लिखी, इसी पुस्तक पर बाद में बांग्ला की बहुचर्चित फिल्म ‘मनेर मानुष’ बनी। हाल में ही देवेश राय ने अम्बेडकर को सहयोग करने वाले योगेन मंडल की आत्मकथा लिखी है।
हम हिन्दी लेखकों को अपनी भाषा शैली के द्वारा साहित्येत्तर विषयों पर भी लिखकर आमजन तक पहुंचानी चाहिए। हिन्दी को समृद्ध करके ही हम अधिक दायित्वशील माने जाएंगे।
माला वर्मा जी ने यह काम यात्रा-वृतांत लिखकर किया है। इस क्रम में उनकी किताबें है : – “यूरोप, आइये मलयेशिया-सिंगापुर-थाईलैंड चलें, पिरामिडों के देश में, अमेरिका में कुछ दिन, ग्रीस एंड दुबई, चीन देश की यात्रा, जॉर्डन, टर्की, विश्व के 20 आश्चर्य, कनाडियन रॉकीज एंड अलास्का क्रुज, स्कैन्डिनेविया, आइसलैंड-लैपलैंड, जापान और अब आकर उनकी केन्या पर पुस्तक है।” इसके पहले मैंने इनकी कई किताबें पढ़ीं। भाषा-शैली के अलावा व्यंग्य और सहज जिज्ञासा इनसे अच्छा लिखवा लेती है। हमारे देश में कभी तीर्थ-यात्राएं हुआ करती थीं, पर अब ये बदल गई हैं। अब तो लोग शुरुआत ही मधु-यात्रा से करना चाहते हैं। पहले से संसाधन भी बढ़े हैं और विविधताएँ भी।
केन्या तथा दूसरे अफ्रीकी देशों ने पिछले दशकों में आशातीत उन्नति की है, पुरानी घटनाएँ और मिथकों से बाहर आना आपकी मजबूरी बन जाएगी अगर आज आप इन देशों में जाएं। आप जरूर जाएं। इस पुस्तक से गुजरते हुये आप इन मिथकों से भी रूबरू होंगे। पुस्तक ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे तथा लोग इस तरह की किताबों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित हों।
लेखिका को बधाई, आशा है जल्दी ही हम उनके नए कथा संग्रह और नए यात्रा-संस्मरण को पढ़ेंगे।
आमीन
जितेन्द्र जितांशु
कवि, समीक्षक तथा
सम्पादक-सदीनामा पत्रिका
कोलकाता
jjitanshu@yahoo.com
Weight | 250 g |
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Dimensions | 24 × 14 × 2.5 cm |
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SKU:
978-93-82347-28-6
Description
लम्बे-चौड़े खुले घास के मैदानों में छोटी-बड़ी घासों के बीच विचरते जेब्रा, जिराफ, हाथी तथा किसी छायादार छोटे वृक्ष के नीचे सिंहों की हाँफती तस्वीर कहीं दिख जाये तो अमूमन ये अफ्रीका के केन्या का ही दृश्य हो सकता है और यह सच भी है। जब मैंने अफ्रीका के जंगल, जानवर और आदिवासियों का इतिहास व पृथ्वी की धरातल पर हुए परिवर्तन आदि को पढ़ा तो सर्वप्रथम केन्या ही नजर आया। जाहिर है जिज्ञासा बढ़ती गई।
जिस देश को अब तक ‘लैंड ऑफ गेम्स’ के नाम से पढ़ते आई थी वो तो उसका डार्क साइड था। यूरोप के राजे रजवाड़ों ने जंगल एडवेंचर के नाम पर शिकार के लिए जिस क्षेत्र को चुना था वह केन्या तथा उसके पास ही स्थित तंजानिया था। चीतों की खाल, भैंसों तथा बारहसिंगों के सींग सहित खोपड़ियाँ तथा हाथी दाँत अभी भी यूरोप के छोटे-बड़े महलों में दिखते हैं। कभी बड़ी बहादुरी से इन निर्दोष जीवों की लाश पर अपने पैर रखकर और हाथ में राइफल लिए फोटोज खिंचवायीं जाती थी तथा जन-साधारण के बीच इसका प्रदर्शन भी होता था – मगर अब नहीं। यूरोप जैसा ‘खेल-तमाशा’ हमारे भारत में भी जमकर हुआ है। राजा-महाराजाओं से लेकर अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी
मनमानी की है।
शौक और क्रूरता का यह खेल प्रतिबंधित हो गया है। इस श्रेणी के लोग अब नहीं दिखते किन्तु चंद पैसों के लालच में निरीह जानवरों को मार, उनकी बिक्री अभी भी हो रही है। सरकार की पैनी नजर है और पकड़े जाने पर सजा का प्रावधान भी है लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी और सतर्कता के अभाव में ऐसी घटनाओं पर पूर्ण रूप से लगाम नहीं लग सका है।
केन्या भ्रमण के दौरान बार-बार यही ख्याल आता रहा, इन छोटे-बड़े जानवरों की अपनी एक अलग दुनियां है जिसमें वो अपने तरीके से, अपना कानून बनाकर रहते हैं और हम उनमें खलल डालते हैं। गर यही जीव हमारे शहरी इलाकों में प्रवेश करते हैं उस वक्त हम उन्हें पीट-पीट कर मार डालते हैं, उन्हें भगाने के सौ उपाय होते हैं – अगर यही सुलूक ‘वो’ भी हमारे साथ करें !
हमारा ये कर्तव्य बनता है कि हम जंगलों को बचाएं, उनका दोहन न करें ताकि ये सुन्दर जीव, खूबसूरत पक्षीगण बचे रहें। प्रकृति ने बहुत सोच-समझकर यह संसार रचा है। हाँ, ऑलरेडी हम प्रकृति का बहुत नुकसान कर चुके हैं जिसका खामियाजा भी भुगत रहे हैं। हम जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे। हमारे लिए आत्ममंथन बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा न हो हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए ! फिर तो सारी ‘बुद्धिमानी’ धरी की धरी रह जाएगी। ये धरती बड़ी खूबसूरत है इसे बर्बाद न करें। किसी ने खूब कहा है – जियो और जीने दो।
यहाँ सौमिक और साथी (रिनी) की मैं बहुत आभारी हूँ जिनकी वजह से मुझे कई सुन्दर तस्वीरें प्राप्त हुई जिसे इस पुस्तक में यथास्थान रख दिया है। इसके अलावा अपने सभी सहयात्रियों व टूर लीडर अंजन की शुक्रगुजार हूँ जिनकी वजह से केन्या यात्रा सफल व
यादगार बन सकी।
और… इस पुस्तक को सजाने-सँवारने का काम नन्दलाल साव ने बड़े मनोयोग से किया है – स्पेशल थैंक्स।
30 जनवरी 2020 माला वर्मा
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