आत्मनिर्भर भारत : जन-स्वप्न की कविताएँ
यह पुस्तक “विकसित भारत का सफर” समकालीन भारतीय जनजीवन की आकांक्षाओं, नीतियों और प्रयासों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है। रचनाकार गोबिन्द चौधरी ने विकास-विमर्श की तकनीकी, दुरूह और शुष्क भाषा को जन–अनुभव की सहज, प्रेरक वाणी में रूपांतरित किया है—यह उपलब्धि केवल साहित्यिक नहीं, सांस्कृतिक भी है। कवि को हार्दिक बधाई कि उन्होंने योजनाओं, अभियानों और वैज्ञानिक उपलब्धियों को घोषणापत्र के शिल्प में नहीं, मनुष्यों की आशाओं, श्रम और स्वाभिमान की कथा के रूप में प्रस्तुत किया। मंचीय लय, घोषणात्मक आलंकारिकता, स्मरणीय पुनरुक्तियाँ और लोक-गीतात्मक प्रवाह के सहारे यह संकलन नीति को कविता में और कविता को नागरिक सहभागिता में बदल देता है।
इस कृति को पढ़ना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह आत्मनिर्भर भारत, जन-धन, उज्ज्वला, आयुष्मान भारत, फसल बीमा, कौशल विकास, डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप इंडिया जैसी पहलों के विचार–बीज को मानवीय संदर्भ में खोलती है। यहाँ “योजना” केवल योजना नहीं रहती; वह एक दर्जी के कैंची चलाते हाथों में उभरती हुनरमंदी है, किसी कारीगर की आँखों में सिमटा हुआ गर्व है, किसी किसान की हथेली पर चिपका मेहनत का पसीना है, किसी स्ट्रीट वेंडर के क्यूआर कोड से जुड़ी आत्मनिर्भर मुस्कान है। इसी तरह, इसरो की उड़ानें—चंद्रयान, मंगलयान, आदित्य और गगनयान—यहाँ विज्ञान-प्रगति के सूखे आंकड़ों के रूप में नहीं, राष्ट्रीय जिज्ञासा, अनुशासन और सामूहिक स्वप्न की लोकप्रिय भाषा बनकर आती हैं। करघा, खेत, एलईडी का उजाला, डिजिटल स्क्रीन और उपग्रह जैसे बिंब परंपरा और आधुनिकता का एक साथ उपस्थित कोलाज रचते हैं, जो विकास को केवल जीडीपी की रेखा नहीं रहने देता—उसे मनुष्यता के आयाम से भर देता है।
पुस्तक का महत्व तीन स्तरों पर उभरता है। पहला, संप्रेषण का महत्व: जटिल नीतियों का सार लोकवाणी में उतरता है, जिससे पाठक नीति के “क्या, क्यों, कैसे” को सहजता से ग्रहण कर पाते हैं। दूसरा, सहभागी नैतिकता का महत्व: कविताएँ पाठक को दर्शक नहीं रहने देतीं; वे स्वच्छता, वित्तीय समावेशन, स्वास्थ्य-जागरूकता, ऊर्जा-दक्षता, कौशल-विकास और उद्यमिता की ठोस राहों के लिए प्रेरित करती हैं। तीसरा, सांस्कृतिक सिक्तता का महत्व: राज्य और समाज के बीच विश्वास का सेतु भाषा से बनता है; यह संकलन उसी सेतु को राग, लय और आशा से सुदृढ़ करता है। राजभाषा-प्रसार, युवा–उद्बोधन, विद्यालय–महाविद्यालय गतिविधियाँ, मंचीय वाचन, रेडियो/पॉडकास्ट, तथा नीति–संचार की कार्यशालाएँ—इन सबके लिए पुस्तक तत्काल प्रयोज्य सामग्री देती है।
संपादकीय दृष्टि से संकलन का रेंज व्यापक है; फिर भी पाठकीय सुविधा के लिए विषय–वार क्लस्टरिंग, प्रत्येक खंड के आरंभ में 2–3 वाक्यों की सूक्ष्म प्रस्तावना और अंत में संक्षिप्त काल–स्थान संदर्भ या तथ्य–टिप्पणी जोड़ना उपयोगी होगा। इससे काव्य–प्रवाह अक्षुण्ण रहते हुए संदर्भ–बोध समृद्ध होगा। जहाँ-जहाँ कविताएँ लंबाई में फैलती दिखती हैं, वहाँ अल्प संक्षेप से भाव–सघनता बढ़ेगी और मंचीय प्रभाव भी अधिक तीक्ष्ण होगा। बहुस्वरता के लिए महिला, सीमांत किसान, कारीगर, स्ट्रीट वेंडर, प्रशिक्षु, दिव्यांग जन और युवा वैज्ञानिक—इनके प्रथम-पुरुष स्पर्श के कुछ अतिरिक्त रचनांश संकलन को और जीवंत तथा प्रतिनिधि बना सकते हैं।
कवि गोबिन्द चौधरी का रचनात्मक बल इस बात में है कि वे प्रशंसा और आह्वान के सुर को लोक-लय से बाँधते हैं, जिससे कविता केवल उत्सवधर्मी न रहकर प्रेरक–क्रियात्मक बनती है। विकास का विमर्श अक्सर या तो आंकड़ों में फँस जाता है या नारे में; यह पुस्तक इन दोनों अतियों से बचते हुए मानवीय असर को केंद्र में रखती है। यही कारण है कि पाठक को यहाँ “योजना” के पीछे “मनुष्य” दिखता है—उसकी गरिमा, उसकी आकांक्षा और उसके श्रम का संगीत। यह पुस्तक बताती है कि नीतियाँ तब सार्थक होती हैं जब वे भाषा, संस्कृति और विश्वास के ताने-बाने में बुन दी जाती हैं; और कविता तब सार्थक होती है जब वह नागरिक जीवन में भागीदारी की रोशनी भरती है।
प्रकाशक के नाते यह भरोसा व्यक्त किया जाता है कि यह संकलन केवल एक बार पढ़ लेने की चीज़ नहीं है; इसे मंचों पर, कक्षा-कक्षों में, ग्राम सभाओं और युवा–मंचों पर बार-बार पढ़ा और सुना जाना चाहिए। प्रत्येक पाठ नए अर्थ खोलेगा—क्योंकि परिवर्तन की प्रक्रिया रैखिक नहीं, तरंगों में चलती है; और कविता उन्हीं तरंगों को स्वर देती है। भविष्य के संस्करणों में पाठकों और अध्यापकों से प्राप्त सुझावों के आधार पर संदर्भ–परिशिष्ट, सूचकांक और चयनित मंचीय–प्रस्तुति मार्गदर्शिका जोड़ी जाएगी, ताकि पुस्तक नीति–संचार और सांस्कृतिक पहलों की कार्य–दिशा में एक उपयोगी उपकरण के रूप में और सशक्त हो।
अंत में, लेखक गोबिन्द चौधरी को साधुवाद—उन्होंने नीति की धड़कन को नागरिक–आशा की ताल में सुनाने का जो दायित्व निभाया है, वह हमारे समय की बड़ी सांस्कृतिक आवश्यकता है। यह संकलन उस आवश्यकता का समयोचित प्रत्युत्तर है। आशा है, पाठक इस पुस्तक को केवल सराहेंगे नहीं, इसके आग्रहों को अपने दैनिक जीवन और सामुदायिक पहलों में क्रिया में भी बदलेंगे। यही इस प्रकाशकीय का विनम्र आग्रह और इस प्रकाशन का मूल विश्वास है।
सादर धन्यवाद…
नन्दलाल साव
संस्थापक व संचालक, अंजनी प्रकाशन, हालिसहर
उत्तर 24 परगना, कोलकाता, पश्चिम बंगाल
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