सदानीरा : साहित्य, प्रकृति और सामाजिक न्याय का संगम
डॉ. दिनेश धर्मपाल द्वारा रचित ‘सदानीरा : वैचारिकी का सतत-प्रवाह’ एक ऐसी कृति है जो साहित्य के समुद्र में नई लहरें ला रही है। यह पुस्तक गद्य और काव्य का अद्वितीय मिलन है, जो पाठक को एक साथ हंसी, आँसू, और विचारों में खोजने का अद्वितीय अनुभव कराता है।
पुस्तक ने नए समय की एक नई पड़ाव को छूने का प्रयास किया है, जिसमें सौंदर्य का एक नया स्वर और संस्कृति के उत्कर्ष को समझने का एक नया दृष्टिकोण है। लेखक द्वारा नदी के प्रवाह, बारिश, तूफान की छाया में लिखी गई यह कृति प्राकृतिक सौंदर्य को छूने का प्रयास करती है एवं विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी प्रकाश डालती है।
सदानीरा अद्वितीय पहलुओं से भरा हुआ है, जैसा कि लेखक ने स्वयं इसे बुक मैग्जीन कहा है। इसमें समय के साथ बदलते समृद्धि के दृष्टिकोण को भी दर्शाया गया है, जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष की दिशा में है।
सदानीरा नदी की भावना से भी भरा हुआ है, जो सतत अंतस में प्रवाहित रहती है। इसके पीछे का उद्देश्य है सृष्टि की निरंतरता और जीवन के संचक्र को दर्शाना।
लेखक के द्वारा कही गई मुख्य पंक्तियों में से एक यह है, “प्रेम की भूख उस भूख से परे है जिसकी परिणति रोटी और पानी को पाकर पूरी हो जाती है!” इस सुंदर पंक्ति से स्पष्ट होता है कि प्रेम का सच्चा अर्थ भूख से परे है, जो स्वयं जीवन की रोटी-पानी से भी ऊपर है।
इसमें विविधता है, जैसा कि उल्लास के क्षण सभी के जीवन में आना चाहिए, और जब यह नहीं होता, तो समय को ग्रहण लग जाना स्वाभाविक है। लेखक ने इस बात को बहुतंत्र में रूपांतरित किया है और उसे एक रूप में उल्लेख किया है कि सदानीरा के बहाव को बांधना, एक तरह से उसे खंडित करना है, निर्मूल करना है।
बेटियों के लिए व्यक्तिगत संघर्ष और समाज में हो रहे असमानता पर लेखक का ध्यान भी है। उन्होंने यह दिखाया है कि बेटियां गरीबी के बावजूद भी अपने परिवारों के लिए गर्व की विनम्रता से भरी हो सकती हैं।
लेखक ने सामाजिक परिवर्तन की बातें करते हुए कहते हैं, “सींखचों को तोड़, स्वतंत्रता का नया परिधान वरण कर आ रही हूं मैं… एक विस्मृत राग अलापने आ रही हूं मैं… मैं प्रक्षेपात्रों को समुद्र के अंतस में फेंकने आ रही हूं, मैं बदलाव की एक नयी भूमिका गढ़ने आ रही हूं…” यह पंक्ति उनकी आत्मविश्वास और समर्थन की भावना को दिखाती है, जिनके माध्यम से लेखक समाज में सकारात्मक परिवर्तन का समर्थन करते हैं।
सदानीरा नई गति से बहने का न्यौता देती है और कहती है, “मौन की चीख को खुशहाली में बदल दो! मृत्यु तो तय है बंधु, तो जी लो… मैं सदानीरा भी तो पीड़ाओं, अवरोधों को झेलते हुए आगे कदम दर कदम बढ़ाती हूँ, तो फिर मानव जाति क्यों नहीं? सर्वोन्नत खड़े पहाड़ भी तो उसी त्रासदी से गुजरते हैं!” इस प्रेरणादायक उक्ति के माध्यम से लेखक सभी को समझाते हैं कि समस्त अधिकारों के साथ आगे बढ़ना और अपनी आवश्यकताओं के लिए खड़े होना महत्वपूर्ण है।
पुस्तक ‘सदानीरा : वैचारिकी का सतत-प्रवाह’ का अध्ययन करना एक महत्वपूर्ण अनुभव है, जो नए विचारों और सृजनात्मकता की दिशा में हमें मुख्य रूप से लेखक के साथ परिचित कराता है। यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे हर किसी को पढ़नी चाहिए। इसमें भूख, प्रेम, नारी व्यथा, लोभ, अहंकार, अमीरी-गरीबी, सामाजिक न्याय के महत्व एवं असमानता जैसे मुद्दों को विचारशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठकों को समझने का नया दृष्टिकोण मिलता है। इस पुस्तक के माध्यम से हमें यह शिक्षा मिलती है कि साहित्य के माध्यम से हम समाज में सकारात्मक परिवर्तन का समर्थन तथा विभिन्न मुद्दों पर अपने स्थान की पहचान कैसे कर सकते हैं।”
सदानीरा : वैचारिकी का सतत-प्रवाह
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सदानीरा – मेरी साहित्यिक यात्रा का एक अभिनव और खूबसूरत पड़ाव है। यह एक किताब न होकर एक बुक मैग्जीन है। यूं कह लीजिए – बुक भी और मैग्जीन भी। समय-समय पर वैश्विक साहित्य, विशेषता: हिंदी साहित्य में नई-नई विधाओं का उन्मेष या आगमन होता रहा है। यह किसी भी साहित्य के पल्लवन विकास के लिए बहुत जरूरी है।
मैं मानता हूं साहित्य को निर्धारित खेमों, भागों या उपभागों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। ऐसा करने में दोष है। ऐसा करने से समय विशेष की धारा, उसका अविरल प्रवाह खंडित हो सकता है।
यांत्रिक समय में समय की परिभाषा बदल गई है। हम कम समय में बहुत कुछ जानना चाह रहे हैं। ऐसा सोचने में कहीं कोई दोष दिखाई नहीं देता।
सदानीरा – समय के एक नए पड़ाव को इंगित करता है। जिसमें तारतम्यता है! सौंदर्य का एक नूतन स्वर है! परंपरा संस्कृति के उत्कर्ष को समझने की एक नई रीत विधमान है।
सदानीरा – सदा बहने वाली नदी सतत अंतस में प्रवाहित होती रहे। इस कृति के पीछे का यही एक उदेश्य है।
अंजनी प्रकाशन कोलकाता के श्रीयुत नंदलाल जी ने जो रुचि इसे निकालने में दर्शायी है, उसके लिए आभार के दो शब्द गौण हैं। मेरी छोटी बहन माला वर्मा जी को लेकर क्या कहूं? यह कृति उन्हीं की वजह से प्रकाश में आई है। हिंदी साहित्य में उनका योगदान अप्रतिम है। उनके शब्द मेरे लिए शब्द नहीं संपदा है।
– डॉ. दिनेश धर्मपाल
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- Author: DR. DINESH DHARMPAL
- Edition: First
- Language: Hindi
- Publisher: Anjani Prakashan
Dimensions | 29 × 22 × 1 cm |
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