कहानियां तो मैं कई वर्षों से लिख रही हूं मगर उन्हें छपवाने में झिझक महसूस हो रही थी। इसकी वजह थी- मैंने जो कुछ भी देखा सुना था, उसे ही कहानी का जामा पहनाकर सपाटबयानी कर दी थी- न कहीं दार्शनिकता, न कहीं साहित्यिकता और न ही कहीं श्रृंगारिकता। अधिकांश पात्र समस्याओं से जूझते हुए… फिर भी ऐसी कुछ कहानियों के छप जाने पर मेरा साहस तथा उत्साह बढ़ा। कुछ प्रबुद्ध लेखक- लेखिकाओं ने उचित मार्गदर्शन किया। इस तरह मेरे नजरिये से देखी जिन्दगी पर कइयों ने स्वीकृति की मुहर लगा दी।
जहां तक मेरे नजरिये का सवाल है, मुझे बड़े सीमित दायरे में ही अपनी कहानियों के पात्रों को ढूंढना पड़ा। हिन्दी साहित्य की तरफ मेरा रुझान बचपन से ही रहा। मगर मेरे डॉक्टर पिता को मुझे डॉक्टर बनाने की धुन सवार थी। विज्ञान की ढेर सारी पुस्तकों में भी मुझे साहित्य नजर आता रहा। विज्ञान पढ़ना ही समय का तकाजा था और मेरी साहित्यिक रुचि को शिकस्त खानी पड़ी। खैर, बाद में मेरे यही चिकित्सक पिता मेरे सबसे बड़े पाठक, आलोचक तथा प्रशंसक साबित हुए। मेरी सारी रचनाओं की प्रतियां जो मैं समय-समय से उन्हें भेजती, उसे अपनी टिप्पणियों समेत इस ढंग से सजा कर रखना कोई साहित्यिक एवं पारखी ही कर सकता है। अपने पिता के इस दूसरे रूप पर मैं चकित रह गयी।
लड़की होने के नाते ढेर सारे बंधनों के बीच एक निर्दिष्ट तथा सुरक्षित पथ पर चलते हुए साहित्य में हाथ-पाँव मारने की बात सोचना भी मुश्किल था। मैं कहानियां जरूर सोचा करती, काल्पनिक रेखाचित्र बनाती, ढेरों पात्र उभरते मगर उनमें स्थायित्व नजर नहीं आता। डाक्टर तो न बन सकी मगर एक डाक्टर की पत्नी बन गई। ससुराल के नियमानुसार लगभग साल भर मुझे गाँव में रहना पड़ा और सच पूछिए तो यहीं मैंने जिन्दगी को नजदीक से देखा। परम्परा और आधुनिकता की लड़ाई, आर्थिक तंगहाली से जूझना, पारिवारिक कलह, टूटते-बिखरते संयुक्त परिवार, भोले-भाले ग्रामीण बच्चे, शिक्षा-अशिक्षा में फर्क, धार्मिक तथा राजनैतिक पाखंड का शिकार, गाँव का जन जीवन… आदि-आदि बातों को इतने करीब से देखने का मौका मिला कि ये सारे पात्र मेरे स्मृति पटल पर बहुत गहरे अंकित होते गए।
बाद में आरा से कलकत्ते के पास हाजीनगर आकर पति के संग रहना आरम्भ किया। यहां माहौल और भी रुखा-सूखा था। इस औद्योगिक शहर में हिन्दी साहित्य के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं था जो मेरी रुचि को प्रोत्साहित करता। मात्र मेरे पति ही थे जिन्होंने अपनी व्यस्तता के बावजूद यदाकदा चर्चा कर मेरे इस शौक को जिलाये रखा। एक औद्योगिक शहर की मशीनी जिन्दगी और कलकत्ते की आपाधापी में संघर्षरत लोगों को देखते हुए मेरी आँखें कुछ और खुली कान कुछ और खड़े हुए और कहानियां स्वतःस्फूर्त पन्नों पर उतरती गईं।
जैसा कि होता है, दर्जनों कहानियों के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद कहानी-संग्रह की बारी आती है और मैं भी इस दुनिया में पहला कदम रख रही हूं। आप सबों की शुभेच्छाओं के लिये नतमस्तक हूं।
जिन लोगों ने इस प्रयास में मेरा हौसला बढ़ाया है, उनकी सूची बड़ी लम्बी है और सबकी चर्चा इस छोटे से पृष्ठ में संभव नहीं। फिर भी कुछ लोगों का उल्लेख न करना घोर कृतघ्नता होगी। प्रख्यात कहानीकार श्री मिथिलेश्वर जी का स्नेह, सलाह तथा आशीर्वाद हमेशा प्राप्त होता रहा। नये लेखकों के समक्ष आने वाली परेशानियों से वे हमेशा आगाह करते रहे और अपने व्यक्तिगत साहित्यिक अनुभवों की चर्चा कर समस्याओं का हल ढूंढ़ने में मदद करते रहे। इन कहानियों को संग्रह का मूर्त रूप देने में कलकत्ता के सांध्य दैनिक ‘महानगर गार्जियन’ के संपादक अनुज तुल्य श्री प्रकाश चंडालिया जी का जो सहयोग मिला, न भूलने वाली बात है। उनकी महानगर टीम, विशेषकर ओम प्रकाश पाण्डेय, सुश्री बिन्दु चतुर्वेदी व संजीव गुप्ता ने बड़ी लगन से काम किया।
पाठकों की बेबाक टिप्पणियां मुझे और भी परिमार्जित करने में सहायक रहीं। इस सिलसिले में मैं सलुवा (खड़गपुर) के श्री श्याम कुमार राई का नाम सर्वोच्च रखूंगी और मेरी तो यही कामना है, ऐसे पाठक और शुभचिंतक हर लेखक को मिलें। कहीं कोई त्रुटि नजर आये तो इसे मेरा पहला प्रयास समझ क्षमा कर देंगे।
बसेसर की लाठी
₹200.00
प्रथम संस्करण के पूरे तेईस वर्ष बाद ‘बसेसर की लाठी’ का द्वितीय संस्करण निकल रहा है। थोड़े बहुत बदलाव के साथ यह कहानी संग्रह दुबारा आपके सामने है।
‘बसेसर की लाठी’ के प्रथम संस्करण का लोकार्पण, कोलकाता के महाजाति सदन में उस वक्त के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर जी के हाथों सम्पन्न हुआ था। साहित्यिक जीवन की पहली किताब और इतनी ऊंची छलांग – स्वप्न सरीखा था। तब उनके साथ और भी कई दिग्गज हस्तियाँ मौजूद थी। उस मंच तक मुझे, मेरी किताब को पहुंचाने में श्री प्रकाश चंडालिया जी का हाथ था, जो उनकी निगरानी में प्रकाशित हुई थी। मैं तब भी उनकी आभारी थी और आज भी।
तेईस वर्ष पूर्व मेरे अम्मा-पापा जीवित थे, आज दोनों दिवंगत हैं। भूमिका के नाम पर – बिज्जी का महत्वपूर्ण खत भी प्रथम संस्करण में छपा था, जिसे ज्यों का त्यों गुरु का प्रसाद समझ धर दिया है। बिज्जी (विजयदान देथा) को साहित्य जगत में कौन नहीं जानता। ये मेरा सौभाग्य था कि उन्होंने मुझ नवांकुर के लिए अपनी लेखनी चलाकर ‘भूमिका’ लिखी जो मेरी कहानी संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण अनमोल पन्ना बन गया था, और आज भी उतना ही कालजयी। हिन्दी साहित्य फ़लक पर जब कभी ‘भूमिका लेखन’ को लेकर कोई शोध, कोई चर्चा होगी तो ये ‘बिज्जी’ की ‘भूमिका’ सर्वश्रेष्ठ मानी जाएगी। ये मेरा आकलन है, शायद पढ़ने के बाद आप भी सहमत हो जाये। आज बिज्जी हमारे बीच नहीं। किन्तु इतना कुछ दे गए हैं कि राजस्थानी साहित्य और हिन्दी साहित्य आजीवन नतमस्तक रहेगा।
इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर दी गई तस्वीर को श्री संजीव गुप्ता जी ने बनाया है, उनका सादर आभार… हर कहानी के अंत में कुछ चित्रांकन दिये गए है जिसे मेरी पोती आन्या-मायरा ने बनाया है। उन्हें ढेरों आशीष।
उम्मीद करती हूँ ये कहानी संग्रह आपको पसंद आएगी…
100 in stock
- Author: Mala Verma
- Edition: First
- Language: Hindi
- Publisher: Anjani Prakashan
Weight | 159 g |
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Dimensions | 24 × 14 × 1 cm |
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