सच्चिदानन्द के सान्निध्य में
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स्वामी रामसुखदास जी ने संतों के संग सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहा है, “सन्त प्रारब्ध से मिलते हैं, भगवद्कृपा से मिलते हैं और अपनी लगन से भी मिलते हैं। उनसे लाभ उठाने में हमारी सच्ची लगन, उत्कट अभिलाषा ही मुख्य है। “सत्संग के बारे में उन्होंने कहा, “सत् तत्व (परमात्मा) में निष्काम प्रेम होना ही सत्संग है और जीवन-मुक्त सन्त के साथ निष्काम प्रेम होना भी सत्संग है। उनके साथ बैठना भी सत्संग है। संसार से विमुख होना भी सत्संग है। तात्पर्य यह है कि हम किसी भी प्रकार से परमात्मा के सम्मुख हो जाय, वही सत्संग है।”
भगवत्कृपा से हमें पूज्य ठाकुर का सत्संग मिला है। इस सुअवसर को व्यर्थ नहीं होने देना है। ऐसा संयोग बार-बार नहीं मिलता। हमारे भीतर छिपी रचनात्मक आध्यात्मिक-शक्ति की पहचान पूज्य ठाकुर के माध्यम से ही होने वाली है। पूज्य खेरा साहब ने एक प्रसंग सुनाया। एक बार कोलकाता से बड़े-बड़े पदों पर आसीन चार भक्त आश्रम आये। प्रायः सभी की सेवा-मुक्ति का समय नज़दीक था। उन लोगों ने पूछा, “सेवा-मुक्ति के बाद हमें क्या करना चाहिए? “पूज्य ठाकुर ने कहा, “फिर से बालक बन जा। अपने हृदय को बालक के हृदय की तरह शुद्ध, पवित्र, निश्छल बना ले और ईश्वर में लग जा।”
Weight | 220 g |
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Dimensions | 24 × 14 × 2.5 cm |
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इस कलिकाल में यदि कोई सच्ची भक्ति और वंदना है तो वह गुरु महाराज की भक्ति और वंदना है। चूंकि प्रभु से मिलाने और सद्कर्म की राह पर चलने की प्रेरणा गुरु से ही मिलती है अतः शास्त्रों ने भी गुरू वंदना को ईश्वर वंदना से अधिक महत्व दिया है।
श्रद्धेय गुरुवर की जीवनी को कलमबद्ध करने का जो भगीरथ प्रयास श्री तिवारी जी ने किया है वह अतुलनीय है। बिना गुरू की अंतरप्रेरणा से यह कतई संभव नहीं है कि कोई उनकी महिमा का गुणगान और बखान कर सके वह भी उस गुरू की जो साक्षात प्रभु श्रीकृष्ण का प्रतिरूप हों।
इस पुस्तक के हर पृष्ठ में अनमोल कंचन की भांति एक-एक शब्द आंखों के समक्ष ऐसे सजीव हो उठते हैं जैसे ये लिखित रूप में ना होकर ध्वनि रूप में प्रकट हो रहे हों। पुस्तक के एक-एक शब्द में केवल भक्ति ही नहीं, जीवन की सफलता के लिए आवश्यक मार्गदर्शन बड़ी आसानी से प्राप्त हो सकता है। परम आदरणीय प्रभुपाद स्वामी द्वारा लिखित गीता यथारूप यदि आपने कभी पढ़ा हो तो इस ग्रंथ को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होगा कि पुनः एक बार गुरूवर के माध्यम से श्री गीता जी के प्रकाशन की प्रेरणा प्रस्फुटित हुई है और इस बार इस लेखन कार्य की जिम्मेदारी सदगुरु महाराज जी ने आदरणीय तिवारी जी को सौंपा है।
आदरणीय श्री तिवारी जी ने मुझे इस पुस्तक की पांडुलिपि दी थी प्रूफ देखने और व्याकरणिक भूलों को सुधार का सुझाव देने के लिए। मैं अपने कार्य के प्रति इतना अधिक अहंकार में भरा था कि यही लगा कि चार सौ पन्ने तो मैं चार दिन में ही देख लूंगा, पर मुझ मूढ़मति को यह कहां पता था कि साक्षात भगवान श्री कृष्ण रूप में प्रकट आदरणीय गुरूवर की जीवनी को इतनी आसानी से पढ़कर समझना कहां आसान होगा। पुस्तक पढ़ने और देखने की शुरूआत मैंने कर तो दी पर क्रमशः यह देखा कि पूरी तरह इसमें रमे बिना इसे पढ़ नहीं सकता और यदि पढ़ नहीं सकता तो फिर प्रूफिंग कैसे होगी। एक-एक पन्ने को बारीकी से पढ़ने में इतना निमग्न हो गया कि समय का भान ही नहीं रहा और दिन का काम महीने में पूरा हुआ।
यूं कहूँ कि आदरणीय तिवारी जी के लिखित शब्दों के माध्यम से मुझे भी ईश लीला की ऐसी अनुभूति हुई जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। थोड़ा सा प्रयोगवादी भी हूं अतः हर अमृत वचन पर मंथन किया, हृदय में आत्मसात किया और अब भी कर रहा हूं। यह ग्रंथ जीवन में भक्ति के रस को तो प्रगाढ़ करेगा ही, निराश, हताश और अंधकार में भटक रहे लोगों के मार्गदर्शन का भी कार्य करेगा।
विनय कुमार शुक्ल
संस्थापक एवं संचालक
भाषा शिक्षण अनुवाद संस्थान
हाजीनगर, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल
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