जरा ठहरो… सोचो!

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Weight 140 g
Dimensions 22 × 14 × 1.5 cm
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Description

दो शब्द
हमारे आसपास बहुत सारी घटनाएँ राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक घटती रहती हैं। इस उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में कहाँ, किसे, कब अवकाश के क्षण मिलते हैं, उस पर सोचा जाए, विश्‍लेषण किया जाए और उन घटनाओं का छिद्र छिद्रान्‍वेषण किया जाए, यह कहानी संग्रह आपसे यह माँग करता है कि आप अपने व्‍यस्‍ततम क्षणों में से कुछ क्षण निकाल कर जरा ठहरिए और सोचिए। आज का मनुष्‍य आत्‍मरति, आत्‍मकेंद्रित और आत्‍मश्‍लाघा की ओर बढ़ रहा है। फैंटसी, मिथक और यथार्थ को केंद्र बनाकर ‘जरा ठहरिए यमराज’ कहानी का ताना-बाना बुना गया है। मनुष्‍य अपने देश की माटी को तुच्‍छ समझता है। छ: से आठ वर्ष की आयु के बच्‍चे घर की आर्थिक तंगी को समझना नहीं चाहते हैं, वे अपनी चाहतों के कारण अपने अभिभावकों से संघर्ष और तनाव करके घर से पलायन करते हैं। किसी स्‍टेशन पर आश्रय लेते हैं, छोटी आयु से फल, चाय, टॉफी आदि बेचते हैं। मृत्‍यु अटल ध्रुव सत्‍य है, चाहे वह मृत्‍यु दुर्घटना के कारण आये या अकाल ही काल के गाल में कोई समा जाए, महामारी, बीमारियों का कोई शिकार हो या प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो—इन सभी प्रकार की मृत्‍यु निंदनीय है। इसी से सुकोमल बच्‍चों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। हमारा मध्‍यवर्गीय परिवार किसी भी घटना से टकरा कर चूर-चूर हो जाता है। किशोर-किशोरी किशोरावस्‍था में अपने अभिभावकों को सजा देने के लिए सेना में भर्ती हो जाते हैं या किसी अन्‍य जोखिम भरे कार्य को चुन लेते हैं। ऐसे किशोरों द्वारा उठाए गए कदम देश, समाज, घर और स्‍वयं उनके लिए घातक सिद्ध होते हैं, बस उनके भीतर एक कला का विकास होता है—वह है झूठ बोलने की कला। आज समाज में इसी का बोलबाला है। संपूर्ण भारत में बंगाल का जादू प्रसिद्ध है। मैं बचपन से बंगाल के जादू की कथा सुनती आई हूँ। महाभारत में बंगाल की भूमि को छोड़कर अन्‍य प्रांत में चलने का प्रसंग कुंती के द्वारा युद्धिष्ठिर से उठाया गया है—यह भूमि मादक है। मजदूर वर्ग अपने परिवार, पत्‍नी को छोड़कर इस प्रांत में आते हैं, सारा दिन मशीनों से युद्ध करते, शरीर थक कर चूर हो जाता, पर काम वासना थके शरीर को सोने कब देती है? मनुष्‍य का अपने धर्म के प्रति आस्‍थावान होना स्‍वाभाविक है। वह उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में भगवान को छिपा कर रखता और पूजता है। वह अपने को अरबन नक्‍सल या तथाकथित मार्क्‍सवादी मानता है। हम मानव, मानवेतर प्राणी के साथ संवेदन शून्‍य होते जा रहे हैं, उन प्राणियों में काम, आहार, निद्रा, मैथुन की क्रिया उनके लिए आवश्‍यक है। हम उनका घर, आहार, निद्रा छीन चुके हैं, नर और मादा को अलग करके अपने बीच रख कर उन्‍हें सजाति बंधु से अलग कर रहे हैं। हम सभ्‍य मानव अपना घर बड़ा करने के लिए पशुओं का घर छोटा कर रहे हैं या सड़क पर उन्‍हें मारे-मारे फिरने के लिए विवश कर रहे हैं और उनके द्वारा थोड़ी-सी की गई हिंसा हमारे अहिंसक प्रवृत्ति को बर्दाश्‍त नहीं है। हमें पशु-पक्षी अपने जीवन से प्रेरणा देते हैं, सोशल मीडिया के शोर में सचेतन मनुष्‍य कभी सीखना, सोचना नहीं चाहता है।
आजकल भारत में आत्‍महत्‍या का प्रचलन तेजी से हो रहा है। मनुष्‍य का जीवन बहुत अधिक सहज नहीं होता, उसमें कर्ज लेकर, उसके चक्रवृद्धि ब्‍याज में फँस कर आत्‍महत्‍या करना—यह विकल्‍प समाज के लिए आत्‍मघाती है। प्रौढ़ावस्‍था आते-आते बच्‍चों पर आश्रित हो जाना, अपने कर्म से विमुख होकर जीवन जीना—यह पुरुषार्थ नहीं है, जहाँ प्रकृति बहुत सुंदर होती है, वहाँ मानव-जीवन बहुत कठिनाई से भरा होता है। इसका ज्‍वलंत उदाहरण सुंदरवन है। अकसर शहर में कुछ दबंग टाइप ऑफिसर आ जाते हैं। कुछ दिन धर-पकड़ तेजी के साथ चलता है, जो हम जैसे बुद्धिजीवियों का आई वॉश है, उन्‍हें माल उगाई में वृद्धि करनी है। आप सभी फोनधारी मनुष्‍य अजनबी कॉल के परत-दर-परत खंगालने पर आजकल के इंसानों का कच्‍चा चिट्ठा खुलकर सामने आएगा। आज भी सरकारी नौकरी पेशा में स्‍त्री घर-बाहर के दोहरे पाटों के बीच पीसी जा रही है जबकि दोनों स्‍थलों—कर्मक्षेत्र और गृहस्‍थी क्षेत्र के युद्ध में एक स्थल पर ही वह युद्ध लड़ सकती है।

डॉ. इंदु सिंह

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