म्युनिसिपैलिटी का भैंसा
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म्युनिसिपैलिटी का भैंसा
प्रस्तुत संग्रह माला वर्मा की 20 कहानियों का एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें हम अपनी माटी की सोंधी महक, जन जीवन की धड़कन, आम जन के दुख-दर्द, जीवन संघर्ष, विसंगतियों की जीवंत तस्वीर पा सकते हैं।
ये कहानियाँ समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करती हैं। अत्यन्त सहज, सरल एवं रोचक भाषा में उकेरी गई घटनाएं अपने ही जीवन का एक अंश लगती हैं। चाहे संग्रह की ‘सच सेल्युकस ! विचित्र है यह देश’ कहानी हो या ‘नेऊर पोखर वाले फूफा’, ‘लोटन प्रसाद’, ‘कहो अम्मा, अब क्या हुआ?’, ‘वकील साहब’। इन सभी में आप पायेंगे एक ऐसा एहसास जो आपको उस परिवेश के करीब ले जाएगा जिसकी यादें आपकी जेहन में अब धुंधली होती जा रही हैं।
कहानियाँ ग्रामीण परिवेश में जी रहे लोगों के भीतरी मन के सच को उजागर करती हैं। कहानियों के बारे में लेखिका का स्वयं कहना है कि “ग्रामीण परिवेश में रहते और वहां के लोगों से मिलते हुए जो छाप मन-मस्तिष्क पर अंकित हुई उसे ही शब्दों में पिरोने की कोशिश यहां की गई है।” कथा-वस्तु और शैली की नवीनता के कारण संग्रह कथा साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाने में समर्थ है।
– नन्दलाल साव
प्रकाशक
Weight | 159 g |
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Dimensions | 24 × 14 × 1.5 cm |
70 in stock
वर्षों पूर्व भारत के देहातों में व्याप्त अशिक्षा, बेकारी, गरीबी तथा कुपोषण आदि की चर्चा पूरे दुनिया में थी। फोटोग्राफर तथा चित्रकार इन दृश्यों को फिल्मा कर तथा देश-विदेश में इन्हें प्रदर्शित कर अपनी कला तथा सच्चाई पर फूले न समाते थे। मेरे मानस पर भी भारत के ग्रामीण जीवन की कुछ ऐसी ही छवि अंकित थी। शादी के बाद ‘मजबूरन’ कुछ महीने मुझे बिहार के गाँव में बिताने पड़े। मुझे अपने माँ-बाप से बिछड़ने का दुःख तो था ही उससे बड़ा दुःख था गाँव में रहने का। मुझ ‘शहरी’ को खुश रखने की हर संभव कोशिश की जाती रही मगर पता नहीं क्यों मुझे ये सारी व्यवस्था हास्यकर लगती। इसी ग्रामीण माहौल में कुछ महीने गुजरे। धीरे-धीरे यहाँ के भोले-भाले लोगों को करीब से देखा। ढेर सारी कठिनाइयों व दुर्व्यवस्थाओं के बीच रहते हुए भी इन ग्रामीण लोगों के दिलो-दिमाग व सोच में मुझे कुछ ऐसे सुव्यवस्थित विचार नजर आए जिनको पाने के लिए शहरी लोग कितने योग, व्यायाम, प्राणायाम, सत्संग और न जाने क्या-क्या उपाय करते हैं।
काग़ज़ क़लम से कहानी लिखना तो उन दिनों मुझे नहीं आता था मगर इन ग्रामीण इलाकों की कई कहानियाँ मेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित होती गईं। कैमरे के लेंस से देखे तो इस ग्राम्य जीवन पर अपनी गलत राय बनाने का मुझे अफसोस हुआ तथा इन लोगों को छलने वालों पर आक्रोश। मुझमें इतना दम तो नहीं था कि इस स्थिति को बदल दूँ मगर देहाती लोगों की सूक्ष्म भावनाओं का सही चित्रण तो जरूर कर सकती थी। इन कहानियों में उसी का प्रयास है।
उन दिनों पर्दा तथा घूँघट निकालने की प्रथा अपने ढलान पर थी मगर थी जरूर। मेरा शहरी दिमाग इसे हजम नहीं कर पा रहा था। बड़ी मुश्किल से शालीनता का निर्वाह करते हुए अपनी स्वच्छंदता कायम रखी। एक क्रियेटिव तरीके के तहत या यूँ कहें कुछ लिखने की अपनी दूरगामी योजना के तहत मैंने घर में आने-जाने वाले बड़े-बुजुर्गों का ‘इंटरव्यू’ लेना शुरू किया। उसके निचोड़ में कई कहानियों की रूपरेखा बनती गई। अपने सदाचारी तथा सरल सास-ससुर के उनके जीवन काल में घटित घटनाओं ने मुझे ज़िंदगी को करीब से समझने का मौका दिया और सच पूछिए वे ही मेरे प्रेरणा स्त्रोत बने। बहुत सारी घटनाएँ, संवेदनाएँ तथा पात्र जो गहरे अंकित हो गए थे मन को उद्वेलित करते रहे और उन्हें क़लमबद्ध करने से मैं अपने आप को रोक न सकी। लिखा तो मैंने स्वांतः सुखाय ही था—उम्मीद है, आपको भी अच्छा लगे।
पुनश्चः – ‘म्युनिसिपैलिटी का भैंसा’ कहानी संग्रह का पहला संस्करण सन् 2011 में छपा था यानी अब से बारह वर्ष पूर्व। अधिकतर कहानियाँ उस वक्त की हैं जब चंद रुपयों में कई महत्वपूर्ण कार्य कर लिये जाते थे। तब लैंड लाइन फोन हुआ करते थे, मोबाइल का जमाना नहीं था। आपको मेरी कहानियों में उस वक्त की कीमत और आज की कीमत में ढेरों अंतर दिखेंगे। आप कहीं ये न सोचने लगे कि अरे इतने कम कीमत में कैसे काम हो रहा है! इस कहानी संग्रह का यह दूसरा संस्करण जरूर है पर मैंने किसी तरह का कोई बदलाव इन कहानियों में नहीं किया है। इस बार भी वही कथ्य, वही पुरानी बातें, पुरानी यादें हैं। जैसा देखा-सुना, महसूस किया था इन कहानियों को लिखते वक्त-आज भी मेरे लिए उतनी ही संवेदनशील, मार्मिक, प्रेरणादायी हैं। अतीत को कभी बिसराया नहीं जा सकता बल्कि कुछ सीख जरूर मिल जाती है। उम्मीद करती हूँ मेरी वर्षों पूर्व लिखी कहानियाँ आज भी आपको उद्वेलित करेंगी, दिल को छू लेंगी। इन कहानियों के अधिकतर पात्र अब इस दुनिया में नहीं रहें लेकिन इनकी याद तो आती ही हैं, जिन्होंने अनायास मेरी लेखनी से जुड़ मुझे अतिशय भावुक किया और मुझसे इतनी कहानियाँ लिखवा ली। उन यादों को, उन सभी चरित्र को सादर नमन…
अंजनी प्रकाशन का आभार जिन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित किया।
माला वर्मा
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