

राब्ता
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राब्ता
वन्दना रानी दयाल
‘अपने अल्फ़ाजों को जोड़ा
तो हसीं शक्ल बन गई,
तुमसे ‘राब्ता’ ही कुछ ऐसा था
कि गजल बन गई!’
विरह मिलन, शृंगार, नारी, मोहब्बत, इश्क आदि सदियों से कवि का प्रिय विषय रहा है।
इन्हीं रसों से सराबोर एक से बढ़कर एक गीतों का सृजन इस संकलन में देखने को मिलता है। इन्हीं गीतों की कड़ी में वन्दना रानी दयाल जी की कविताएं भी शामिल हैं। नए प्रतिमानों और नवीन बिम्बों के कारण इन कविताओं में एक ताजगी और नयापन देखने को मिलता है। हृदयतल की वेदना को शब्दों में इस तरह पिरोया गया है कि पाठक भी समान अनुभूति से गुजरने लगता है और कवयित्री के मनोभावों को महसूस करने लगता है।
संकलन में शृंगार रस से इतर कुछ नारी विमर्श और आधुनिक समस्याओं को उजागर करती बेहतरीन कविताएं भी हैं। कविताओं की भाषा और वाक्य विन्यास भावों के अनुरूप कोमल और सुमधुर है। सुन्दर भावों और सटीक शब्दों का समन्वय पाठकों को स्वप्निल संसार में डुबो देता है।
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